नमस्कार दोस्तों वैसे तो आदिवासी समाज संपूर्ण भारत में जैसे मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र झारखंड तेलंगाना आंध्र प्रदेश उड़ीसा राज्यों मुख्य रूप से है और आदिवासी समाज में कई समुदाय हैं आज हम बात करेंगे आदिवासी के मध्य प्रदेश के दूसरे नंबर के और भारत के प्रथम नंबर के समुदाय गोंड समुदाय के बारे में
मध्यप्रदेश में गोंड जनजाति मूलता नर्मदा नदी के दोनों ओर निवास करती है जिसे ये कोयातुर लोग नर्मदा ताई कहते है आज हम आपको ले चलेंगे छिंदवाड़ा जिले के महाराष्ट्र सीमा से लगे हुए गांव बड़कुई जहां पर हमने देखा समझा और जाना कि किस प्रकार से आदिवासी समुदाय वैसे गोंड समुदाय अपने आप को कोयतुर या कहते है । कोया का अर्थ है गर्भ कोख से जन्म लेने वाला प्राकृतिक पूजक और पूर्वज पूजक अपनी संस्कृति में मिलान करता है और उनकी मौत पर किस प्रकार से परिवार जनों में दुख व्यक्त किया जाता है और उसकी याद में किस प्रकार से उसको अपनी याद में सदैव स्मृति में रखा जाता है गोंड समुदाय
सबसे पहले तो आदिवासी समाज में यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसको मिट्टी में दफनाया जाता है जिसे यह लोग बाबा सातुर इनकी गोडी भाषा मे जाना हम ने।हम हिंदी में कहेंगे कि मिट्टी देना हम आपको बता दें मध्यप्रदेश के गोंड समुदाय में गोंडी भाषा जो इनकी मातृभाषा होती है इनकी संस्कृति इनकी सभ्यता की प्राचीन भाषा जिसे यह गोंडीभाषा कहते हैं। वह बोली जाती है आमतौर पर छिंदवाड़ा महाराष्ट्र की पट्टी महाराष्ट्र सीमा से सटे मध्य प्रदेश के और जो गोंड समुदाय बाहुल में निवास करती है सिवनी बालाघाट बैतूल खंडवा मंडला डिंडोरी शहडोल अमरकंटक अनूपपुर मण्डला जबलपुर के गांव में और महाराष्ट्र जिले के अमरावती चंद्रपुर कई अन्य स्थानों पर भी लगे हुए आसपास के क्षेत्रों में जिले में
जब कोई व्यक्ति खत्म हो जाता है यानी मृत्यु हो जाती है तब उसकी लिए सबसे पहले पूरे परिवार जन के सदस्य जैसा कि आमतौर पर नाते रिश्तेदार दूर-दूर के सभी रिश्तेदार और अन्य समाज से हटकर सामाजिक व्यक्ति घर कुटुम परिवार के महिला पुरुष बच्चे युवा सभी पहुंच जाते हैं होता है मरने वाले के घर पहुंच जाते हैं और उससे उसके घर वालों को सांत्वना देते हैं हैं
फिर जहां भूमि होती है जहां इनकी खेती होती है जहां इनका खेत होता है वहां पर व्यक्ति के आकार अनुसार गड्ढा किया जाता है समस्त परिवार जन के सदस्य इस मिट्टी के लिए उस शव को ले जाते हैं
उस व्यक्ति को उस मिट्टी में एक-एक करके सभी प्रणाम करते हुए मिट्टी देते हैं और उस गड्ढे में यानी कि उसे मिट्टी दे देते हैं प्राकृतिक में लीन प्रकृतिमय कर देते हैं
उसके बाद परिवार के सभी सदस्य अपने अपने घर वापस चले जाते हैं
या जिनको मुकाम लेना हो मुकाम का अर्थ गोंडी भाषा में ठहरना होता है है
यहां पर यह कतई नहीं है कि कोई उनके घर में रुक नहीं सकता है बिल्कुल आराम से आप उनके घर में रुक सकते हैं आपकी सुविधा के अनुसार वह लोग अपने घर में व्यवस्थाएं रखते हैं
तीसरे दिन होता है तीसरा पूजा होता है तीसरा तीसरा पूजा यानी कि
यहां की ऐसी प्रथा है गौड समुदाय में
दूरदराज से आने वाले आसपास के गांव से आने वाले सारे रिश्तेदार घर से लाते हैं चावल और दाल
इन सभी के द्वारा इकट्ठा किया गया चावल और दाल
इनके मुठवा द्वारा पकाया जाता है जो इनका इन समुदाय की जो पूजा करता है पूजा पाठ का कार्य करता है उसे ये लोंग मुठवा या भुमका कहते हैं
इकट्ठा करके उस दाल चावल को पका लेने के बाद पूजा के लिए थाली छैवला पेड के पत्तों से तैयार की गई हुई पत्तल तैयार की जाती है जहां पर व्यक्ति को मिट्टी दी है वहां पर जाते हैं सभी परिवार के जन सबसे पहले घर की महिलाओं द्वारा थाली लेकर मरने वाले जहां पर मिट्टी दी है उसके लिए वहां पर जाते हैं यह लोग सारी की सारी घर की महिलाएं ।इस पूजा में महिलाओं का विशेष स्थान होता है
जो पका पकाया चावल होता है महिलाओं द्वारा उस व्यक्ति को बड़े प्यार से उसकी मिट्टी स्थल (धूप पारा) छिटकी और हिंदी में भोग लगाने की प्रथा के उसे श्रद्धा पूर्वक है एक-एक करके जितनी भी उसके परिवार जनों में महिलाएं होती हैं सर्वप्रथम उसकी बहन उसकी बेटी ,पत्नी ,भाभी, उसके और नाते रिश्तेदार,महिलाओं से उस व्यक्ति से जितने भी प्रकार से संबंधित होते हैं, उसको खिलाते छिटकी करते हैं और रो-रोकर उसको याद एक-एक पल को
यह वह स्थान होता है जहां व्यक्ति को मिट्टी दी गई है पूरे दाल चावल भात का छिटकी करते हुए भोग लगाते हुए
यह लोग केवल इसी परंपराओं के द्वारा अपने पूर्वजों को पुजा करते हैं
न
उसके बाद सभी लोग वापस जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई है उसके घर पर वापस आते हैं घर में जो दाल चावल सभी रिश्तेदारों के द्वारा लाए जाते हैं उसकी याद में पकाए जाते हैं उसकी यादों को एक-एक करके सभी अपने अपने शब्दों में बताते हैं और उस याद भरे पल को यह लोग उसकी याद में सभी बैठकर जो भी इनके घर में उपलब्ध होता है दाल चावल मिर्ची अचार जो भी व्यक्ति की गुंजाइश के हिसाब से खत्म होने वाले परिवार की गुंजाइश के हिसाब से जो उन से बन पाता है वह सारी की सारी व्यवस्था भोजन की व्यवस्था वह लोग करते हैं इसमें किसी भी प्रकार का सामाजिक दबाव नहीं होता है पूड़ी सब्जी रायता मिठाई खिलाने की कोई प्रथा नहीं है यह भोजन जो होता है 3 दिन में होता है अगर आपके पास व्यवस्था है तो आप पक्का भोजन भी करा सकते हैं और अगर आपके पास व्यवस्था था नहीं है तो आप कच्चा भोजन करा सकते हैं और यदि किसी को या भोजन अभी नहीं कराना है तो कुछ समय बाद इनके यहां एक प्रथा होती है जो मर चुका होता है उसको यह लोग अपने हिसाब से अपने देवों में मिलाते हैं जिसे यह देव मिलान कहते हैं इसके लिए इन का मुठवा इनका खुद का भुमका इनका खुद का पुजारी होता है जिसके द्वारा यह सारी क्रिया कर्म और सारी पूजा की जाती है यह प्रथा रूढ़ीवादी प्रथा आदिवासियों में ही प्रचलित है अनादि काल से चली आ रही है प्रथा को तीसरा कहा जाता ,"देवमिलान एक सामुदायिक प्रथा है जिसे दूसरे शब्दो मै पत्थरगढी कहां जाता है यह हैhttps://youtube.com/channel/UCbAA-i1_JOIF-Q7EpUgp2hQ देखे विडियो और जाने
ये सारी जानकारी गोडसमुदाय के लोगों से
बहुत अच्छा बहुत शानदार
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